Thursday, September 19, 2019

पाकिस्तान : कश्मीर के साथ 'एकजुटता' का प्रदर्शन

ऐसे ही तर्क भारत के अन्य मुस्लिम बहुल राज्यों की आबादी की बनावट बनाए रखने के लिए दिए जाते हैं. ये पाकिस्तान के द्विराष्ट्र सिद्धांत के समर्थन जैसा है. लेकिन, पाकिस्तान का ये तर्क अब इसलिए नहीं माना जाता क्योंकि उसका पूर्वी हिस्सा भाषाई और क्षेत्रीय भेदभाव की वजह से अलग देश बांग्लादेश बन चुका है.
वहीं, दूसरी तरफ़ पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों की घटती आबादी के बरक्स भारत में अल्पसंख्यक ख़ूब आगे बढ़ रहे हैं. मुसलमान, जो देश के बंटवारे के वक़्त आबादी का दस प्रतिशत ही थे वो आज बढ़ कर भारत की कुल आबादी का 14 प्रतिशत हो गए हैं.
भारत के मुसलमानों ने चौतरफ़ा तरक़्क़ी भी देखी है. उन्होंने राजनीतिक, न्यायिक और सैन्य व्यवस्था में ऊंचे पद हासिल किए हैं. देश में कई मुस्लिम अरबपति भी हैं.
जिस स्वायत्तता का सपना कश्मीरी देखते हैं, वो हमारी संवैधानिक व्यवस्था में पहले से ही है. मानवता के इतिहास में इसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती. भारत में पूर्ण विलय के बाद, भले ही ये केंद्र शासित प्रदेश हो या आगे चलकर फिर से पूर्ण राज्य बन जाए, कश्मीर अपने लोगों को बेहतर ज़िंदगी दे सकेगा.
जैसा कि संयुक्त राष्ट्र में भारत के राजदूत सैयद अकबरुद्दीन ने बेहद शानदार शब्दों में बयां किया है, संविधान के अनुच्छेद 370 में बदलाव का किसी और पर कोई असर नहीं पड़ेगा.
कश्मीर में सुरक्षा के जो अस्थायी उपाय किए गए हैं, उससे हिंसा और लोगों की जान जाने की घटनाएं होने से रोका है. और जहां तक पाकिस्तान से बातचीत का सवाल है, भारत शिमला समझौते के प्रति पूरी तरह से प्रतिबद्ध है. जिसके तहत दोनों देशों ने संघर्ष रोकने और आपसी संबंध सामान्य बनाने की परिकल्पना की है.
संविधान के अनुच्छेद 370 और 35A कश्मीर को ये अधिकार देते थे कि वो अपने यहां रहने वालों को स्थायी नागरिकों और बाक़ी लोगों से अलग कर सके. इससे कश्मीर में अन्य लोगों के संपत्ति ख़रीदने पर भी रोक लगी थी. इन्हें हटाने का फ़ैसला एक साहसिक क़दम माना जाना चाहिए था.
सरकार का बचाव करने वालों का तर्क है कि स्वायत्तता की वजह से ही कश्मीर घाटी में अलगाववाद को बढ़ावा मिला. इसने कश्मीर में बड़े पैमाने पर हिंसा को रोकने में भी कोई मदद नहीं मिली.
उनका ये भी कहना है कि संविधान के इन अनुच्छेदों की वजह से कश्मीर घाटी का इस्लामीकरण होता गया. इसकी वजह से ही कश्मीरी पंडितों (ऊंची जाति के हिंदू) पर भयानक ज़ुल्म हुए और उन्हें अपने पुश्तैनी ठिकाने छोड़कर भागना पड़ा. कश्मीर के स्पेशल स्टेटस की वजह से ही भारत के तरक़्क़ीपसंद क़ानून जैसे कि दलितों और अनुसूचित जातियों को अधिकार देने वाले क़ानून यहां लागू नहीं हो सके.
कश्मीर के विशेष दर्जे को छीनने का समर्थन करने वालों का कहना है कि इससे राज्य का आर्थिक विकास होगा. क्योंकि ग़ैर कश्मीरी लोग भी वहां ज़मीन ख़रीदने और निवेश करने के लिए आज़ाद होंगे.
ये सच है कि जब से अनुच्छेद 370 और अनुच्छेद 35A ख़त्म करने का एलान हुआ है, तब से राज्यपाल ने राज्य के बाहर के निवेशकों को एक कांफ्रेंस में शामिल होने का आमंत्रण दिया है. बड़ी कंपनियां, जिनमें भारत की सबसे बड़ी कंपनी रिलायंस भी शामिल है, उन्होंने ये इरादा ज़ाहिर किया है कि वो कश्मीर में नए प्रोजेक्ट शुरू करने के इच्छुक हैं. वहीं, बॉलीवुड के निर्माताओं में तो कश्मीर पर आधारित ब्लॉकबस्टर फ़िल्में बनाने और वहां शूटिंग करने की होड़ सी लगी है.
सबसे ख़राब बात तो ये है कि हरियाणा के एक वरिष्ठ राजनेता ने ये भी कह दिया कि उनके राज्य के पुरुष और स्त्रियों के अनुपात को अब आसानी से सुधारा जा सकेगा क्योंकि अब वो कश्मीर से लड़कियां ब्याह कर हरियाणा ला सकेंगे.
हालांकि बहुत से लोगों को ये चिंता है कि इस क़दम से होने वाले नुक़सान, आगे चल कर होने वाले संभावित फ़ायदों से ज़्यादा हैं.
सबसे बड़ी बात ये है कि भारतीय लोकतंत्र में हिंसा की संस्कृति को स्थायी जगह मिल जाना. सरकार ने जम्मू-कश्मीर के लोगों के साथ भारत गणराज्य के बुनियादी संवैधानिक संबंध को ही बदल डाला है. और ये फ़ैसला करने से पहले न तो उन्होंने कश्मीरी जनता से मशविरा किया और न ही राज्य के चुने हुए प्रतिनिधियों से बात की.
क़ानून के साथ हुए इस मज़ाक़ से अन्य राज्यों को भी संदेश दिया गया है कि अगर ऐसा जम्मू-कश्मीर के साथ होता है, तो वो उनके साथ भी भविष्य में हो सकता है.
सरकार का ये दावा कि उसने इस संवैधानिक संशोधन के लिए कश्मीरी जनता की सहमति ले ली है, सरासर ग़लत है. क्योंकि इस वक़्त जम्मू-कश्मीर में सीधे केंद्र का शासन है. और ऐसे में ये मानना कि केंद्र द्वारा नियुक्त राज्यपाल, राज्य की नुमाइंदगी करते हैं, बिल्कुल ही असंवैधानिक है. बल्कि यूं कहें कि केंद्र सरकार ने इस फ़ैसले के लिए अपने ही नियुक्त राज्यपाल की सहमति ले ली है.
ये फ़ैसला संसद के सामने पेश किया गया. संसद में सरकार का बहुमत होने की वजह से ये आसानी से पास हो गया. इस पर न तो सलाह मशविरा हुआ और न ही स्थानीय राजनीतिक दलों से संवाद किया गया. राज्य की विधानसभा भंग है. और राज्य के चुने हुए प्रतिनिधि नज़रबंद हैं.
इस फ़ैसले से कश्मीर को अंधे कुएं में धकेल दिया गया. और इस तरह से ये संवैधानिक तख़्तापलट कर दिया गया. राज्य के शिक्षण संस्थान बंद थे. इम्तिहान टाल दिए गए. दुकानें और पेट्रोल पंप बंद थे. टीवी नेटवर्क का प्रसारण रोक दिया गया. संचार के माध्यम काट दिए गए. टेलीफ़ोन और मोबाइल सेवाओं पर रोक लगा दी गई थी. इंटरनेट का शटर भी डाउन कर दिया गया था.
कश्मीर की जनता को पूरी तरह से अलग-थलग रहने और बाक़ी दुनिया से बिना संपर्क के जीने को मजबूर कर के ये संवैधानिक बदलाव किया गया.